नई दिल्ली, 5 नवंबर 2025: नए वरियात में Scheduled Castes and Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act, 1989 (SC/ST अधिनियम) को लेकर न्यायपालिका ने ऐसा सबूत-संग्रह और निर्देश जारी किये हैं, जिनका उद्देश्य इस कानून के कथित दुरुपयोग को रोकना है। इस कदम से आरोपी पक्षों की याचनाएँ, गिरफ्तारी प्रक्रिया और मुकदमों की समीक्षा तेज होने की संभावना बन गयी है।
मुख्य रूप से यह मामला उस दिशा में इशारा है जहाँ संवैधानिक सुरक्षा के दायरे व विधि-व्यवस्था की आवश्यकता एक साथ दिख रही है।
मुख्य बातें
- न्यायालयों ने SC/ST अधिनियम के दुरुपयोग की संख्या बढ़ने की ओर संकेत किया है।
- कोर्ट ने गिरफ्तारी से पूर्व लिखित अनुमति व सबूत-संग्रह पर अधिक सतर्कता अपनाने का आदेश दिया है।
- पिछड़े व अंकित समुदायों की रक्षा-नियोजित सोच बने रहने के बीच अपराध व मुकदमों में नाखूबी की शिकायतें उठी हैं।
- उच्च न्यायालयों व Supreme Court of India दोनों ने मामलों में ‘मिश्रित उद्देश्य’ वाले आरोपों पर संज्ञान लेना शुरू कर दिया है।
- इस समीक्षा-प्रक्रिया का असर न्यायिक देरी व आरोप-प्रक्रिया पर भी पड़ सकता है, जिससे प्रताडित पक्षों की आवाज़ और भी महत्वपूर्ण हो उठेगी।
क्या हुआ?
कुछ न्यायालयों ने SC/ST अधिनियम के तहत दर्ज अभियोगों में ‘माह-मुकदमे’ और निजी रंजिश से भरे आंकड़ों का हवाला देते हुए मुक़द्दमों को खारिज करना या सुनवाई के पहले विशेष अनुमति माँगना शुरू कर दिया है। उदाहरण के लिए, एक Uttar Pradesh की हाई कोर्ट ने 20 साल जेल में रहे एक व्यक्ति को रिहा किया क्योंकि उसके खिलाफ अधिनियम के तहत अभियोग सही तरह से सबूतित नहीं पाया गया था।
इसके अतिरिक्त, न्यायालयों ने उन मामलों का विश्लेषण किया है जहाँ आरोप सिर्फ FIR दर्ज होने पर कंपन्सेशन-प्रस्ताव के लिए उठाये गए थे – बिना यह देखे कि आरोपित को सुनवाई का अपमान हुआ या नहीं।
प्रमुख तथ्य एवं आंकड़े
- एक अध्ययन में 2015 में SC/ST अधिनियम के तहत दर्ज अभियोगों में लगभग 75 % मामलों में अभियुक्त की ओर से निर्वचन या मुकदमा वापस हो जाना पाया गया।
- न्यायालयों ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि अधिनियम “भयानक हथियार” या “ब्लैकमेल का साधन” बन गया है, जिसका फायदा निजी रंजिश रखने वाले पक्ष उठा रहे हैं।
- उच्च न्यायालयों ने गिरफ्तारी के समय लिखित अनुमति (‘sanction’) तथा त्वरित मध्यस्थ जांच-प्रक्रिया अपनाने के निर्देश जारी किये हैं।
प्रतिक्रियाएँ
वकील संघों व सामाजिक न्याय कार्यकर्ताओं ने इस दिशा को स्वागत योग्य बताया है लेकिन इस बात पर सख्त चेतावनी दी है कि सुरक्षा-कानून का उद्देश्य दबे-कुचले व पिछड़े वर्गों की रक्षा करना था और इसे कमजोर नहीं होना चाहिए। उदाहरण के लिए, एक दलित अधिकार कार्यकर्ता ने कहा:
“यदि अधिनियम की रक्षा नहीं होगी, तो जमीनी स्तर पर हिंसा और सामाजिक भेदभाव से निपटना और कठिन हो जाएगा।”
वहीं, न्यायपालिका का कहना है कि “रोज़ ऐसे मामले सामने आ रहे हैं जहाँ शिकायत सिर्फ अंकुश या प्रतिस्पर्धा का माध्यम बन चुकी है।”
वर्तमान स्थिति / आगे क्या होगा
वर्तमान में, विभिन्न उच्च न्यायालयों ने SC/ST अधिनियम के तहत दर्ज प्राथमिकी-मुकदमों की समीक्षा आरंभ कर दी है; कई मामलों में सुनवाई हेतु विशेष पैनल तय किये गए हैं। अगले 3–6 महीनों में इस समीक्षा का प्रभाव यह हो सकता है कि FIR दर्ज करने के नियम कड़े हो जाएँ, गिरफ्तारी से पूर्व जांच-प्रारूप सख्त हो जाए, तथा ऐसे अभियोगों में तेजी से निस्तारण की प्रक्रिया सामने आए।
सरकार भी इस बीच अधिनियम के दायरे, निगरानी-पुर्वा अभियोजन व निवेशगation प्रणाली पर समीक्षा कर रही है। यदि सुधार नहीं हुआ, तो सामाजिक न्याय-मंचों में विरोध की संभावना बढ़ सकती है।
संदर्भ / पृष्ठभूमि
SC/ST (पूर्व अतिचार) अधिनियम का प्रमुख उद्देश्य था – भारत में सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों (अनुसूचित जाति व जनजाति) के विरुद्ध उत्पीड़न, अत्याचार तथा भेदभाव की घटनाओं को कानूनी रूप से नियंत्रित करना। इस कानून को 1989 में संसद ने पारित किया। तथापि समय के साथ आंकड़ों ने यह संकेत दिया कि अधिनियम का प्रतिक्रिया-व्यवस्था (complaint-mechanism) व्यक्तिगत रंजिश या आर्थिक विवाद के लिए भी इस्तेमाल हो रही है।
उदाहरण के लिए, न्यायशास्त्रिक विश्लेषण ने यह बताया है कि सामाजिक रूप से कमजोर पृष्ठभूमि से आने वालों की गवाही को अक्सर विश्वसनीय नहीं माना जाता, जबकि प्रभुत्वशाली समुदायों की कथाओं को सहजता से स्वीकार किया जाता है।
इसलिए इस समीक्षा-प्रक्रिया का महत्व इसलिए है क्योंकि यह न्याय-समानता (due process) और सामाजिक संरक्षण (social protection) के बीच एक संतुलन स्थापित करने का प्रयास है।
स्रोत: hindupost, thehindu






