अमेरिका-वियतनाम डील से भारत को क्या सबक लेना चाहिए?
भारत और अमेरिका के बीच एक नए व्यापार समझौते की घोषणा कभी भी हो सकती है। लेकिन इससे पहले अमेरिका और वियतनाम के बीच हुए हालिया व्यापार समझौते ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार की दिशा को लेकर कई इशारे दे दिए हैं।
इस डील से यह समझने में मदद मिलती है कि ट्रंप प्रशासन किन शर्तों पर बातचीत कर रहा है, और भारत को किस रणनीति के साथ आगे बढ़ना चाहिए।
पहला संकेत: ट्रंप टैरिफ को लेकर बेहद सख्त हैं
वियतनाम डील से यह साफ है कि ट्रंप टैरिफ लगाने की धमकी को सिर्फ राजनीतिक हथियार के रूप में नहीं देखते — वह इसे लागू करने को तैयार हैं।
इस समझौते के तहत अमेरिका ने वियतनाम से आने वाले उत्पादों पर 20% टैरिफ लगाए, जबकि वियतनाम को अमेरिकी वस्तुओं पर अपने सभी टैरिफ हटाने पड़े। यह डील असंतुलित है, लेकिन अमेरिका का मकसद साफ है — अपने उत्पादों के लिए ज्यादा एक्सेस और व्यापार घाटे में कमी।
दूसरा संकेत: चीन को घेरने की रणनीति
डील के क्लॉज में एक अहम बात छिपी है — अगर कोई प्रोडक्ट वियतनाम में बना है लेकिन उसमें चीनी कंपोनेंट्स हैं, तो उस पर 40% डबल टैरिफ लगाया जाएगा।
यह सीधे तौर पर ट्रांसशिपमेंट को निशाना बनाता है — यानी जब चीन अपने प्रोडक्ट्स को किसी अन्य देश (जैसे वियतनाम) के ज़रिए अमेरिका भेजता है ताकि टैरिफ से बचा जा सके। यह चीन पर आर्थिक दबाव बनाने की एक बड़ी रणनीति है, जो ASEAN देशों के लिए चेतावनी और भारत जैसे प्रतिस्पर्धियों के लिए अवसर है।
तीसरा संकेत: सेक्टोरल टैरिफ पर स्पष्टता अभी भी कम
वियतनाम डील में एक कमजोरी यह रही कि सेक्टर-विशिष्ट टैरिफ (जैसे टेक्सटाइल, इलेक्ट्रॉनिक्स, एग्रो-प्रोडक्ट्स) को लेकर स्पष्ट रूप से दिशा नहीं दी गई।
यह समस्या भारत जैसे देशों के लिए भी चुनौतीपूर्ण हो सकती है जहां हर सेक्टर की टैरिफ नीति अलग है और उसके अपने राजनीतिक और आर्थिक समीकरण हैं।
चौथा संकेत: चीन पर दबाव बना रहेगा
इस डील का बड़ा मैसेज यह है कि अमेरिका आने वाले महीनों में भी चीन पर टैरिफ का दबाव बनाए रखेगा। वियतनाम के ज़रिए होने वाले निर्यात पर विशेष शर्तें इसका संकेत हैं।
भारत के लिए यह सकारात्मक संकेत हो सकता है, क्योंकि वह अपने निर्यात को चीन के मुकाबले विश्वसनीय और राजनीतिक रूप से कम संवेदनशील विकल्प के रूप में पेश कर सकता है।
तीन श्रेणियों में बंटेंगे अमेरिका के व्यापारिक साझेदार
9 जुलाई की डेडलाइन से पहले अमेरिका जिन करीब 20 देशों से बातचीत कर रहा है, उन्हें तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है:
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फोकस्ड डील पाने वाले देश: भारत, ताइवान, EU और UK जैसे देश जिन्हें विशेष समझौते दिए जा सकते हैं।
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एक्सटेंशन वाले देश: वे जो अभी तैयार नहीं हैं लेकिन उन्हें अतिरिक्त समय मिलेगा।
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टैरिफ झेलने वाले देश: जिनके साथ बातचीत नहीं बनी, उन पर सीधे टैरिफ लगा दिए जाएंगे।
कनाडा और मैक्सिको इनसे अलग हैं, क्योंकि वे पहले से ही USMCA समझौते के अंतर्गत हैं।
भारत की रणनीति क्या होनी चाहिए?
भारत के सामने दो विकल्प हैं — या तो 9 जुलाई से पहले ‘अर्ली हार्वेस्ट’ समझौते पर सहमति बनाए, या फिर अमेरिका के टैरिफ का सामना करे।
नीति निर्धारकों का मानना है कि कुछ उद्योगों में टैरिफ रियायत देने से भारत अमेरिका के साथ एक संतुलित और राजनीतिक रूप से उपयोगी डील कर सकता है, खासकर तब जब उसका उद्देश्य चीन से अलग रहना है।
संभावित टैरिफ रियायतें: कहां हो सकता है समझौता?
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सकारात्मक रुख: ऑटोमोबाइल, इलेक्ट्रॉनिक्स, और कुछ कृषि उत्पादों पर सीमित रियायतें संभव हैं।
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रेडलाइन्स: डेयरी, गेहूं, और चावल जैसे सेक्टर्स में भारत शायद ही झुकेगा।
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संतुलन बनाने के लिए: भारत अमेरिका से कच्चा तेल, रक्षा उपकरण, और तकनीकी सेवाओं में आयात बढ़ाकर ट्रेड घाटे को कम कर सकता है।
अंतिम विचार: भारत के लिए मौके की घड़ी
भारत को इस डील को एक अवसर के रूप में देखना चाहिए — सिर्फ टैरिफ की चर्चा नहीं, बल्कि तकनीक, इनोवेशन, और सप्लाई चेन में नई साझेदारी के दरवाज़े खुल सकते हैं।
वियतनाम डील ने दिखाया है कि अमेरिका अब कोई भी डील ‘एकतरफा ताकत’ के आधार पर करेगा। ऐसे में भारत को संतुलन साधते हुए न्यूनतम नुकसान और अधिकतम लाभ की नीति अपनानी होगी।