सैय्यारा: मोहित सूरी की फिल्म जहाँ प्यार की जीत होती है
फिल्मों में प्यार के मामले में आदित्य चोपड़ा का नाम सबसे ऊपर आता है। उनकी कहानियों के आखिरी पल अक्सर दर्शकों के दिलों में एक अजीब सी छाप छोड़ जाते हैं। वो पल जहाँ पात्र बिना किसी लॉजिक के, बस अपने दिल की सुनते हुए ऐसे फैसले लेते हैं जो शायद हकीकत में मुमकिन न हों, लेकिन स्क्रीन पर वो हमें सच लगने लगते हैं। और शायद यही वजह है कि मोहित सूरी की नई फिल्म *सैय्यारा* के क्लाइमैक्स को देखते हुए कई बार ऐसा लगा जैसे चोपड़ा की दुनिया में वापस आ गए हों।
थिएटर का वो अनुभव
रात की एक पैक्ड शो में *सैय्यारा* देखते हुए, आखिरी आधे घंटे में पूरा हॉल सांस रोके बैठा था। कृष (आहान पांडे) और वाणी (अनीत पड्डा) ऐसे फैसले ले रहे थे जो शुरू में बेतुके लगते थे, लेकिन उनकी ईमानदारी ने सबको चुप कर दिया। आसपास बैठे लोगों के हाथों में फोन थे, कहीं कोई सिसकियाँ ले रहा था, तो कहीं कोई आह भर रहा था। ऐसा लगा जैसे दर्शक इस पल को कैद करना चाहते थे, या शायद खुद को इस पल से बचाना चाहते थे। क्योंकि ये वो सच्चाई थी जिससे हम अक्सर भागते हैं—हम सब चाहे कुछ भी कहें, दिल से रोमांटिक हैं।
फिल्म की कमजोरियाँ
लेकिन ये कहना गलत होगा कि *सैय्यारा* एक बेहतरीन फिल्म है। इंटरवल से पहले का हिस्सा काफी पुराने फॉर्मूले पर चलता है। कहानी के टर्न पहले से ही समझ आने लगते हैं, करैक्टर्स के एक्शन्स प्रिडिक्टेबल लगते हैं। मोहित सूरी अपने पुराने स्टाइल से बाहर नहीं निकल पा रहे थे। लेकिन इंटरवल के बाद फिल्म एक अलग ही रंग में ढल जाती है। यहाँ सूरी ने आदित्य चोपड़ा की तरह सोचना शुरू किया—जहाँ प्यार सिर्फ दर्द भरा नहीं, बल्कि जीवंत और बेखौफ होता है।
कृष: एक नरम, संवेदनशील हीरो
सबसे दिलचस्प बात ये है कि इंटरवल के बाद कृष का करैक्टर बदल जाता है। वो उस स्टीरियोटाइप हीरो में नहीं ढलता जो गुस्सैल हो या जिसकी मर्दानगी उसके अहं से तय होती हो। बल्कि वो एक कोमल, धैर्यवान और भावनात्मक रूप से समझदार इंसान बन जाता है। वाणी के प्यार में वो अपने करियर को पीछे छोड़ देता है, वो सब करता है जिसे दुनिया बेवकूफी कहती। ये मर्दानगी का वो रूप है जिसमें डोमिनेंस नहीं, केयर है। और शायद यही वो चीज है जिसे आदित्य चोपड़ा ने *दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे* से लेकर आज तक अपनी फिल्मों में दिखाया है।
चोपड़ा का प्रभाव
ये कोई संयोग नहीं कि *सैय्यारा* के पीछे आदित्य चोपड़ा का हाथ है। उनकी फिल्मों में प्यार कभी आसान नहीं होता। उनके करैक्टर्स को अपनी नियति से लड़ना पड़ता है, गलत फैसले लेने पड़ते हैं, लेकिन आखिर में वो प्यार को जीत हासिल करते हैं। *सैय्यारा* में भी यही होता है। एक मोहित सूरी फिल्म होने के बावजूद यहाँ *आशिकी* वाला दर्द नहीं, बल्कि एक उम्मीद भरा अंत है। क्योंकि यहाँ हैप्पी एंडिंग किस्मत से नहीं, बल्कि करैक्टर्स की मेहनत से मिलती है।
रब ने बना दी जोड़ी की याद
दिलचस्प बात ये है कि *सैय्यारा* का क्लाइमैक्स कहीं न कहीं *रब ने बना दी जोड़ी* की याद दिलाता है। कृष वाणी को पाने के लिए जिस तरह से खुद को बदलता है, वो सूरज (शाहरुख खान) की याद दिलाता है जो तानी (अनुष्का शर्मा) के लिए खुद को ढालता है। दोनों ही फिल्मों में प्यार एक्सप्रेशन के जरिए जीता जाता है। ग्रैंड जेश्चर नहीं, बल्कि सच्ची भावनाएँ यहाँ काम करती हैं। शायद यही वजह है कि फिल्म का वो आखिरी सीन, जहाँ कृष वाणी की तस्वीर वाले बड़े स्क्रीन की तरफ भागता है और घुटनों पर गिर जाता है, दिमाग से नहीं निकलता। अगर ये आदित्य चोपड़ा के कमबैक का सिग्नल नहीं है, तो फिर कुछ भी नहीं है।
क्या ये फिल्म देखने लायक है?
अगर आप रोमांस के पुराने फॉर्मूले से ऊब चुके हैं, तो *सैय्यारा* आपके लिए नहीं है। लेकिन अगर आप उस प्यार में यकीन रखते हैं जहाँ इंसान अपनी खुशी के लिए लड़ता है, तो शायद ये फिल्म आपको पसंद आए। ये परफेक्ट नहीं है, लेकिन इसके कुछ पल ऐसे हैं जो आपको याद रह जाएँगे।