किंगडम की कहानी: महत्वाकांक्षा तो है, पर असर कहाँ?
फिल्म *किंगडम* को देखते हुए एक बात साफ़ महसूस होती है—यह फिल्म आज के सिनेमाई माहौल की ही देन है। डिजिटल युग में भारतीय फिल्मकार बड़े पर्दे पर कुछ भव्य और दमदार दिखाने के लिए बेताब नज़र आते हैं, लेकिन इस दौरान कहानी की स्पष्टता कहीं पीछे छूट जाती है। गौतम तिन्ननुरी की यह फिल्म भी दर्शकों को चकाचौंध करने की कोशिश में इतनी भागदौड़ करती है कि खुद ही थककर बैठ जाती है।
क्या थी उम्मीदें?
फिल्म के पहले पोस्टर ने दर्शकों का ध्यान खींचा था। विजय देवरकोंडा का आधा चेहरा, जिस पर सच और धोखे के सुराग थे, एक रोमांचक जासूसी थ्रिलर का इशारा करता था। ट्रेलर ने इस उम्मीद को और बढ़ा दिया—ड्रग कार्टेल, हिंसा, पारिवारिक रिश्ते और एक भावनात्मक कैथार्सिस। लेकिन क्या फिल्म इन सब पर खरी उतर पाती है?
कहानी क्या है?
विजय देवरकोंडा यहाँ पुलिस कांस्टेबल सूरी का किरदार निभाते हैं, जो एक पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या के बाद के माहौल में काम कर रहा है। सूरी न सिर्फ़ ईमानदार है, बल्कि अपने भाई शिवा (सत्यदेव) के छोड़कर चले जाने के दर्द से भी जूझ रहा है। कहानी तेज़ी से मोड़ लेती है जब सूरी को एक आदिवासी समुदाय के बीच अंडरकवर जाना पड़ता है, जो श्रीलंकाई हथियार कार्टेल से जुड़ा हुआ है।
पहले एक्ट में गौतम तिन्ननुरी कहानी को समेटने में कामयाब होते हैं। सिनेमैटोग्राफ़र गिरीश गंगाधरन और जोमोन टी. जॉन की छायांकन दृश्यों को एक खास रौनक देती है। एडिटर नवीन नूली की कैंची भी तेज़ है, जिससे पटकथा जल्दी-जल्दी सूचनाओं को पेश करती चलती है।
कहाँ चूक गई फिल्म?
लेकिन इतने सारे तत्वों के बावजूद, *किंगडम* दर्शकों को भावनात्मक रूप से जोड़ नहीं पाती। सूरी और शिवा के रिश्ते को गहराई से दिखाने की बजाय, फिल्म कई धाराओं में बंटकर खो जाती है। आदिवासी समुदाय का मसला, राष्ट्रीय कर्तव्य की बातें, कार्टेल की सत्ता की लड़ाई—ये सब कुछ ऐसे घुलमिल जाते हैं कि कोई भी पहलू पूरी तरह उभर नहीं पाता। भाग्यश्री बोरसे का किरदार डॉ. अनु तो पूरी तरह गुम हो जाता है।
आदिवासी समुदाय, जिसे 1920 के श्रीकाकुलम विद्रोह से प्रेरित बताया गया है, को एक्सोटिक तो दिखाया गया है, लेकिन उसकी पहचान धुंधली रह जाती है। वेंकिटेश वी.पी. का किरदार मुरुगन ज़रूरत से ज़्यादा खून-खराबे वाला लगता है, जो कहानी को और अस्त-व्यस्त कर देता है।
क्या कमी रह गई?
शायद तिन्ननुरी की सबसे बड़ी गलती यह है कि वे सूरी के नज़रिए को गहराई से नहीं खोजते। फिल्म की पटकथा कभी भी सूरी की मानसिक उलझनों को छूने की कोशिश नहीं करती। सत्यदेव के किरदार शिवा का आदिवासियों से जुड़ाव भी सतही लगता है। *किंगडम* में जोसेफ कॉनराड के *हार्ट ऑफ डार्कनेस* और यश चोपड़ा की *दीवार* (1975) की झलक तो है, लेकिन यह फिल्म अपनी दुनिया में हमें पूरी तरह डुबो नहीं पाती।
निष्कर्ष: दिल है, पर धड़कन कमज़ोर
नाग अश्विन की *कल्कि 2898 एडी* (2024) की तरह, *किंगडम* भी एक ऐसी मौलिक कहानी है जो आजकल बड़े बजट की फिल्मों में कम ही देखने को मिलती है। लेकिन दोनों फिल्मों में एक समानता यह भी है—कहानी कहने का अंदाज़ ठंडा और दूरी भरा। *किंगडम* असल दुनिया के सवालों (जैसे आदिवासियों का शोषण) या इंसानी इच्छाओं और नैतिकता पर गहराई से बात नहीं करती। एक महाकाव्य सिर्फ़ दृश्यों का तमाशा नहीं होता, बल्कि इंसानी अनुभवों का दस्तावेज़ भी होता है। तिन्ननुरी की फिल्म इन खोजों की ओर इशारा तो करती है, लेकिन पूरी तरह समर्पित नहीं हो पाती। नतीजा? एक फिल्म जिसमें दिल तो है, लेकिन धड़कन बहुत मद्धम।
फिल्म का विवरण
**कास्ट:** विजय देवरकोंडा, सत्यदेव, भाग्यश्री बोरसे
**निर्देशक:** गौतम तिन्ननुरी
**रेटिंग:** 2.5 स्टार