कुंजीरामायणम की याद दिलाती है ‘सुमथी वलावु’, लेकिन…
बेसिल जोसेफ की ‘कुंजीरामायणम’ में ‘साल्सा मुक्कु’ का अजीबोगरीब सबप्लॉट याद कीजिए। वह कितना भी अविश्वसनीय क्यों न हो, बेसिल के निर्देशन ने उसे पूरी तरह से विश्वसनीय बना दिया था। शायद यही कला ‘सुमथी वलावु’ में गायब है। विष्णु सासी शंकर की यह हॉरर कॉमेडी फिल्म 90 के दशक के केरल-तमिलनाडु बॉर्डर के पास कल्लेली गाँव की कहानी बताती है, जहाँ सुमथी नाम की एक महिला के भूत का खौफ है।
क्या है सुमथी वलावु का रहस्य?
कहानी शुरू होती है एक घुमावदार रास्ते से, जिसे सुमथी वलावु कहा जाता है। किवदंतियों के मुताबिक, सदियों पहले सुमथी नाम की एक महिला को गाँव वालों ने जिंदा जला दिया था। तब से उसकी आत्मा इस रास्ते पर भटकती है। रात के समय इस रास्ते से गुजरने वाला कोई भी व्यक्ति सुरक्षित नहीं बच पाया है। लेकिन अप्पू (अर्जुन अशोकन) और उसके दोस्त माहेश (गोकुल सुरेश) की बहन इस रास्ते को पार करने में कामयाब हो जाते हैं। यहीं से कहानी में ट्विस्ट आता है।
कहानी में दम नहीं, निर्देशन में ढील
फिल्म की शुरुआत तो प्रभावशाली है, लेकिन जैसे ही कहानी आगे बढ़ती है, सब कुछ बिखरने लगता है। अभिलाष पिल्लई की पटकथा और विष्णु के निर्देशन में वह मजबूती नहीं दिखती, जो एक अच्छी हॉरर कॉमेडी के लिए जरूरी होती है। ज्यादातर सीन नीरस लगते हैं, और कॉमेडी का तो नामोनिशान तक नहीं है।
किरदारों की असंगत व्याख्या
सबसे बड़ी समस्या है किरदारों का असंगत होना। अप्पू पहले सुमथी से डरता है, लेकिन बाद में उसी रास्ते पर बार-बार जाता दिखता है। माहेश अपनी बहन के बारे में सच जानने को आतुर है, लेकिन सेना की ड्यूटी के दौरान उसे याद तक नहीं करता। ऐसे ही कई किरदारों का विकास अधूरा लगता है।
गाने और तकनीकी पक्ष
रंजिन राज का संगीत कहीं-कहीं चमकता है, लेकिन कोई भी गाना यादगार नहीं बन पाता। वहीं, अजय मंगाड के आर्ट डायरेक्शन और सुजीत मट्टन्नूर के कॉस्ट्यूम डिजाइन की तारीफ की जा सकती है।
अभिनय: कुछ अच्छे, कुछ बेहद खराब
अर्जुन अशोकन समेत ज्यादातर कलाकारों के प्रदर्शन में कोई खास बात नहीं दिखी। हालाँकि, सिद्धार्थ भरतन और बालू वर्गीज ने अपनी भूमिकाओं को सही ढंग से निभाया है। लेकिन श्रवण मुकेश का खलनायक भद्रन बेहद खराब लगा। मलयालम सिनेमा में हाल के दिनों के सबसे खराब अभिनयों में से एक कहा जा सकता है।
निष्कर्ष: महत्वाकांक्षा ही काफी नहीं
सुमथी वलावु एक ऐसी फिल्म है जिसमें महत्वाकांक्षा तो दिखती है, लेकिन उसे पूरा करने का हुनर नहीं। अमर कौशिक की ‘स्ट्री’ (2018) जैसी मजबूती यहाँ नदारद है। कुल मिलाकर, यह फिल्म दो स्टार से ज्यादा की हकदार नहीं लगती। अगर आप हॉरर कॉमेडी के शौकीन हैं, तो शायद आपको यह फिल्म निराश कर सकती है।